राहुल गांधी ने अब आरएसएस पर हमला बोला है। एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं से दिल्ली में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी देश को आरएसएस की शाखा की तरह चलाना चाहते हैं। वैसे ये कहना मुश्किल है कि आरएसएस की शाखा और राष्ट्रवादी विचार के बारे में उन्हें कितनी जानकारियां हैं। उन्हें करीब से देखनेवाले पत्रकार व नेता आमतौर से उन्हें गंभीरता से न लेने की सलाह ही देते हैं। लेकिन, राहुल देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के वारिस हैं, इसलिए उनकी बातों को हल्के में लिया जाना ठीक नहीं होगा। राहुल ने अपने भाषण में कहा कि आरएसएस और बीजेपी में लोकतंत्र की कमी है। ये उनका नजरिया है। पर क्या कांग्रेस में अंदरुनी लोकतंत्र है? क्या 10 जनपथ के विचार से भिन्न कोई विचार उनकी पार्टी में व्यक्त किया जा सकता है? इसका उत्तर वे या उनकी पार्टी में कोई शायद ही दे पाये। तो राहुल ने ऐसा क्यों कहा? इसलिए राहुल के इस भाषण की पृष्ठभूमि को देखना जरूरी है। अमेठी में उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वालीं मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने दो दिन पहले अमेठी जाकर उन्हें बहस की चुनौती दी थी। उन्होंने अमेठी में कई योजनाओं की घोषणा भी की। कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल अपनी ही मांद में इस तरह की चुनौती और ललकार को पचा नहीं पाये? राहुल ने यह भी कहा कि बीजेपी देश की शिक्षा में अपनी विचारधारा थोपने की कोशिश कर रही है। सवाल ये है कि पूर्ण बहुमत से चुनी सरकार अगर अपने विचार के आधार पर पाठ्यक्रम में बदलाव लाना चाहती है, तो इसमें गलत क्या है? क्या पिछले 68 साल में जो विचार और नजरिया पाठ्यक्रम में पढ़ाया गया उसी को अंतिम माना जाना चाहिए? क्या इतिहास, हमारी सभ्यता और संस्कृति को देखने के लिए सिर्फ आंग्ल-नेहरूवादी-वाम चश्मा या नजरिया ही चलेगा? क्या लोकतंत्र की बुनियादी शर्त यह नहीं है कि हर तरह के विचारों का स्वागत किया जाना चाहिए? लोकतंत्र में हर विचार को फलने-फूलने का अवसर मिलना ही चाहिए। यह तो सैद्धांतिक बात हुई। अगर राजनीतिक तौर से भी देखा जाये तो राहुल जिन नीतियों की वकालत कर रहे हैं उन्हें चुनाव-दर-चुनाव जनता ने अस्वीकार किया है। अगर देश की जनता ने नरेंद्र मोदी को प्रचंड बहुमत से दिल्ली की गद्दी पर बिठाया है, तो उन्हें ये अधिकार है कि वे अपनी पार्टी के विचार के हिसाब से नीतियों और योजनाओं में परिवर्तन करें। उन्हें ये भी हक है कि देश के प्रतिष्ठानों में बरसों से काबिज उन लोगों से सवाल पूछें, जो किसी विचारधारा-विशेष अथवा पार्टी के लिए काम करते रहे हैं। देश का वैचारिक अधिष्ठान किसी खास राजनीतिक विचार का अनुगामी नहीं हो सकता। रही बात आरएसएस की, तो क्या यह एक अवैधानिक संगठन है? देश में लंबे समय तो राहुल की पार्टी ही सत्ता में रही है, अगर ऐसा था तो वे इसे खत्म क्यों नहीं कर पाये? राहुल वैचारिक संकट से बाहर आकर ही अपनी पार्टी को दुबारा खड़ा कर सकते हैं, नहीं तो यह उनका एक ‘रोमांटिक राजनीतिक ख्याल’ बनकर ही रह जायेगा। इससे न कांग्रेस का भला होगा, न ही देश का।
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