Tuesday 2 June 2015

क्या कांग्रेस में अंदरुनी लोकतंत्र है?

राहुल गांधी ने अब आरएसएस पर हमला बोला है। एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं से दिल्ली में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी देश को आरएसएस की शाखा की तरह चलाना चाहते हैं। वैसे ये कहना मुश्किल है कि आरएसएस की शाखा और राष्ट्रवादी विचार के बारे में उन्हें कितनी जानकारियां हैं। उन्हें करीब से देखनेवाले पत्रकार व नेता आमतौर से उन्हें गंभीरता से न लेने की सलाह ही देते हैं। लेकिन, राहुल देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के वारिस हैं, इसलिए उनकी बातों को हल्के में लिया जाना ठीक नहीं होगा। राहुल ने अपने भाषण में कहा कि आरएसएस और बीजेपी में लोकतंत्र की कमी है। ये उनका नजरिया है। पर क्या कांग्रेस में अंदरुनी लोकतंत्र है? क्या 10 जनपथ के विचार से भिन्न कोई विचार उनकी पार्टी में व्यक्त किया जा सकता है? इसका उत्तर वे या उनकी पार्टी में कोई शायद ही दे पाये। तो  राहुल ने ऐसा क्यों कहा? इसलिए राहुल के इस भाषण की पृष्ठभूमि को देखना जरूरी है। अमेठी में उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वालीं मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने दो दिन पहले अमेठी जाकर उन्हें बहस की चुनौती दी थी। उन्होंने अमेठी में कई योजनाओं की घोषणा भी की। कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल अपनी ही मांद में इस तरह की चुनौती और ललकार को पचा नहीं पाये? राहुल ने यह भी कहा कि बीजेपी देश की शिक्षा में अपनी विचारधारा थोपने की कोशिश कर रही है। सवाल ये है कि पूर्ण बहुमत से चुनी सरकार अगर अपने विचार के आधार पर पाठ्यक्रम में बदलाव लाना चाहती है, तो इसमें गलत क्या है? क्या पिछले 68 साल में जो विचार और नजरिया पाठ्यक्रम में पढ़ाया गया उसी को अंतिम माना जाना चाहिए? क्या इतिहास, हमारी सभ्यता और संस्कृति को देखने के लिए सिर्फ आंग्ल-नेहरूवादी-वाम चश्मा या नजरिया ही चलेगा? क्या लोकतंत्र की बुनियादी शर्त यह नहीं है कि हर तरह के विचारों का स्वागत किया जाना चाहिए? लोकतंत्र में हर विचार को फलने-फूलने का अवसर मिलना ही चाहिए। यह तो सैद्धांतिक बात हुई। अगर राजनीतिक तौर से भी देखा जाये तो राहुल जिन नीतियों की वकालत कर रहे हैं उन्हें चुनाव-दर-चुनाव जनता ने अस्वीकार किया है। अगर देश की जनता ने नरेंद्र मोदी को प्रचंड बहुमत से दिल्ली की गद्दी पर बिठाया है, तो उन्हें ये अधिकार है कि वे अपनी पार्टी के विचार के हिसाब से नीतियों और योजनाओं में परिवर्तन करें। उन्हें ये भी हक है कि देश के प्रतिष्ठानों में बरसों से काबिज उन लोगों से सवाल पूछें, जो किसी विचारधारा-विशेष अथवा पार्टी के लिए काम करते रहे हैं। देश का वैचारिक अधिष्ठान किसी खास राजनीतिक विचार का अनुगामी नहीं हो सकता। रही बात आरएसएस की, तो क्या यह एक अवैधानिक संगठन है? देश में लंबे समय तो राहुल की पार्टी ही सत्ता में रही है, अगर ऐसा था तो वे इसे खत्म क्यों नहीं कर पाये? राहुल वैचारिक संकट से बाहर आकर ही अपनी पार्टी को दुबारा खड़ा कर सकते हैं, नहीं तो यह उनका एक ‘रोमांटिक राजनीतिक ख्याल’ बनकर ही रह जायेगा। इससे न कांग्रेस का भला होगा, न ही देश का।

Friday 8 May 2015

राजनीति और मीडिया में धन और बल का प्रभाव

राजनीति और मीडिया में धन और बल का प्रभाव कितना अधिक हो गया है, इसका एक पीड़ादायक उदाहरण है अभिनेता सलमान खान को सजा मिलने के बाद चारों ओर प्रतिक्रियाओं के बादलों का छा जाना. उन्हें थोड़ी ही देर में जमानत मिल जाना और फिल्मी कबीले के लोगों द्वारा रो-रोकर सलमान खान से सहानुभूति के बयान देना इस बात की गवाही है कि गुनाह और सजा आपके पैसे, प्रभाव और परिस्थिति पर नियंत्रण करने की क्षमता से आंके जाते हैं.इस पूरे प्रकरण में सबसे दुखद पहलू मीडिया का है. अकसर मीडिया में गरीब, दुखी, दलित के बारे में दर्द की नदियां बहाते लेखक, पत्रकार दिखते हैं, लेकिन सलमान खान को सजा मिलने के मामले में इसी मीडिया ने संवेदनहीनता एवं सस्तापन दिखाते हुए इसे मानो राष्ट्रीय शोक का विषय बना दिया. एक अमीर व्यक्ति को उसके अपराध के कारण सजा दी गयी.
सलमान की गाड़ी से एक गरीब मारा गया और चार अन्य घायल हुए. सलमान खान की सुरक्षा में तैनात एक पुलिसकर्मी ने बयान दिया कि हादसे के दौरान स्वयं सलमान खान ही गाड़ी चला रहे थे. उसकी मृत्यु हो गयी. इसकी जांच भी नहीं हुई. सब बयान और सबूत अदालत के सामने पेश हुए. 2002 से मामला चलता रहा. और इस बीच बहुत कुछ बदल गया.बयान बदल गये. यह भी बदल गया कि गाड़ी सलमान खान नहीं, बल्कि कोई और ड्राइवर चला रहा था. सलमान के वफादार अंगरक्षक की भी शोकांतिका हुई. लेकिन, यह सब सिर्फ इस कारण से धूमिल और नजरअंदाज किये जाने योग्य मान लिया गया, क्योंकि सलमान खान लोकप्रिय फिल्म अभिनेता हैं, वे बहुत से बड़े प्रभावी, नामी-गिरामी लोगों के दोस्त हैं, उनकी एक फिल्मी सितारे की छवि है, इसलिए उनके प्रति सहानुभूति होनी ही चाहिए. वे गरीब लोग, जो मरे, घायल हुए, सिर्फ इस लायक हैं कि उनको कुछ पैसे दे दिये जायें, ताकि वे अपनी जुबान बंद रखें या परेशान न करें. मीडिया भी और राजनेता एवं फिल्मी कलाकार भी या तो इस मामले में चुप्पी ओढ़े रहते हैं, जिसका अर्थ भी सलमान का समर्थन करना ही होता है अथवा खुलेआम सलमान खान से सहानुभूति व्यक्त करते हैं. आमतौर पर यही चलन है.

Tuesday 7 April 2015

दृढ़ मनोबल से ही प्राप्त किया जा सकता है चरित्र

पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने भारतीय संस्कृति को बुरी तरह से प्रभावित किया है। इसकी भयावहता हमें समाज में स्पष्ट रुप से दिखाई देने लगी है। संयुक्त परिवारों का टूटना, युवक-युवतियों का व्यसन की ओर बढ़ना, आये दिन हो रही बलात्कार की घटनाएं पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण का ही परिणाम हैं। हलांकि समाज में सहजता से इसे कोई स्वीकार करने वाला नहीं है। लोग इसे आधुनिक विकास की परिभाषा के रुप में गढ़ रहे हैं। पर एक न एक दिन आएगा, जब लोग प्रेम और शांति की खोज में भारतीय संस्कृति को ही अपनाने के लिए मजबूर होंगे। यह संस्कृति चरित्र और मनोबल की प्रबलता से ही बच सकती है। जीवन यानी संघर्ष यानी ताकत यानी मनोबल। मनोबल से ही व्यक्ति स्वयं को बनाए रख सकता है, अन्यथा करोड़ों की भीड़ में अलग पहचान नहीं बन सकती। सभी अपनी-अपनी पहचान के लिए दौड़ रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। कोई पैसे से, कोई अपनी सुंदरता से, कोई विद्वता से और कोई व्यवहार से अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए प्रयास कर रहा है, पर हम कितना भ्रम पालते हैं। पहचान चरित्र के बगैर नहीं बनती। बाकी सब अस्थायी है। चरित्र यानी हमारा आंतरिक व्यक्तित्व-एक पवित्र आभामंडल है। यह सही है कि शक्ति और सौंदर्य का समुचित योग ही हमारा व्यक्तित्व है, पर शक्ति और सौंदर्य आंतरिक भी होते हैं और वाह्य भी होते हैं। धर्म का काम है आंतरिक व्यक्तित्व का विकास। इसके लिए मस्तिष्क और हृदय को सुंदर बनाना अपेक्षित है, जो सद्विचार और सदाचार के विकास से ही संभव है। इसके लिए आध्यात्मिक चेतना का विकास आवश्यक है। आध्यात्मिक व्यक्ति की आस्थाएं, मान्यताएं, आकांक्षाएं और अभिरुचियां धीरे-धीरे परिष्कृत होने लगती हैं। उत्कृष्ट चिंतन से जीवन जीने का सलीका आता है। इससे अंतर्मन में संतोष और बाहर सम्मानपूर्ण वातावरण का सृजन होता है। चरित्र एक साधना है, तपस्या है। जिस प्रकार अहं का पेट बड़ा होता है, उसे रोज कुछ न कुछ चाहिए उसी प्रकार चरित्र को रोज संरक्षण चाहिए और यह सब कुछ केवल दृढ़ मनोबल से ही प्राप्त किया जा सकता है। समाज में संयमित व्यक्ति ही सम्माननीय है और वही स्वीकार्य भी। संयम ही जीवन है। अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए संयम प्रधान जीवन-शैली का विकास जरूरी है। आसक्ति, असंयम का प्रमुख कारण है। आसक्ति पर विजय प्राप्त किए बगैर संयम का विकास किसी भी रूप में नहीं हो सकता। मानसिक और सामाजिक शांति और सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए अनासक्ति के आदर्श का अनुसरण जरूरी है। आसक्ति से जीवन में स्वार्थ और आग्रह की ग्रंथियां उत्पन्न हो जाती हैं। अहंकार का भाव बढ़ जाता है। मानव-मन को उससे मुक्ति दिलाने के लिए अध्यात्म का आश्रय चाहिए। यह संतुलन की प्रक्रिया है। यही चरित्र की साधना है।

Monday 6 April 2015

अपराध बोध से बचें, मानसिक संतुलन बनाए रखें

मानसिक व्याधियों का एक बड़ा कारण अपराध बोध का भार भी है। मनुष्य विवेकहीनता और पशु प्रवृत्ति की स्थिति में अपराध कर बैठता है, परंतु जब उसकी आत्मा और विवेक दोबारा प्रबल होकर अपराध की विवेचना करते हैं, तो मनुष्य अपराध बोध से भर जाता है और इस वजह से कभी-कभी मानसिक संतुलन खो बैठता है। इस असंतुलन की स्थिति में व्यक्ति और बड़ा अपराध कर बैठता है अथवा आत्महत्या जैसा पाप कर बैठता है, जैसे कि अंत में हिटलर ने किया था। अपराध बोध मन और आत्मा पर लगा एक ऐसा घाव होता है जिसे केवल एक योग्य गुरु ही किसी चिकित्सक की तरह ठीक कर सकता है। संसार के ज्यादातर धार्मिक विश्वासों और मतों के अंदर अपराध बोध से मुक्ति के उपाय बताए गए हैं। जैसे ईसाई इसे कन्फेशन यानी गलती स्वीकार करना कहते हैं, क्योंकि इलाज तो तभी हो सकता है जब बीमार खुद स्वीकार करे कि वह बीमार है और उसे ज्ञात हो कि किस कारण वह बीमार है और उन कारणों को दूर करे। तौबा से भी यही तात्पर्य है। स्वाध्याय के द्वारा अपराध बोध को पहचानें और यदि अपराध बोध है तो उसे स्वीकार करें। अमेरिका के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक ब्रायन बांस ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि पुनर्जन्म सत्य है और जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मो के अनुरूप अगले जन्म में वैसी मनोस्थिति व व्यक्तित्व प्राप्त करता है। यह निष्कर्ष उन्होंने अपनी खोज और तथ्यों के आधार पर लिखा है। अक्सर लोग मनोचिकित्सकों या आध्यात्मिक गुरुओं के पास अपराध बोध से मुक्ति पाने के लिए जाते हैं, परंतु आज तक इस व्याधि का कोई कारगर इलाज संभव नहीं हुआ है। अपराध बोध अपराध की ही प्रतिक्रिया है जो अपराध करने वाले के विरुद्ध होता है। विशेषज्ञों के मतानुसार पश्चाताप और विवेक ऐसे उपाय हैं जिनके द्वारा इससे कुछ हद तक मुक्ति पाई जा सकती है। पश्चाताप यदि केवल दिखावे के लिए किया जाएगा तो उससे कोई लाभ नहीं होगा। इसके लिए एक अच्छे गुरु की आवश्यकता होती है जो सर्वप्रथम अपराधी के विवेक को जाग्रत करता है और उसके बाद उसे पश्चाताप की सही विधि बताता है। इसीलिए आदिकाल में राक्षसों के भी गुरु होते थे जैसे कि शुक्राचार्य थे।

Thursday 2 April 2015

अपना घर और परिवेश स्वच्छ रखें

अगर भारत को खुशहाल देखना है तो शुरुआत अपने घर से करनी होगी। जरा सोचिए क्या आप अपने घर और उससे जुड़े परिवेश का स्वच्छ रखते हैं। अपने इर्द-गिर्द झांकिये और खुद का मूल्यांकन करिए कि क्या आप सुबह उठकर अपने घर के सभी कमरों और दरवाजे की सफाई करते हैं। इस सफाई से निकलने वाले कचरे को क्या आप उपयुक्त स्थान पर फेंकते हैं या नहीं। अगर आप अपने घर और उसके आसपास के परिवेश को स्वच्छ रखेंगे तो आपके जीवन में सकारात्मक उर्जा आएगी। इस उर्जा से आपके घर और परिवार का प्रत्येक सदस्य अप्रत्यक्ष रुप से लाभान्वित हो सकेगा। अगर आप में यह गुण है कि प्रतिदिन सुबह उठकर अपने घर और उसके आसपास के परिवेश को साफ सुथरा रखने के लिए सफाई पर विशेष ध्यान रखते हैं तो इस आदत को अपने घर के सभी सदस्यों में ढालने की कोशिश करें। अगर आप इस मकसद में कामयाब हो गए तो समझिए कि आपका एक कदम मंजिल की ओर बढ़ गया। यह ऐसा कार्य है जिसमें किसी प्रकार के धन की आवश्यकता नहीं है। बस मन से तैयार होने की जरुरत है फिर उसे कार्य रुप में परिणित करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। अगर आप खुद और अपने परिवार के सदस्यों में यह आदत डालने में कामयाब हो गए तो फिर अपने पड़ोसी और रिश्तेदारों में भी अभियान चलाकर इस आदत को डालिए। आप देखिएगा कि थोड़े ही दिनों में आप का मुहल्ला स्वच्छता की दृष्टि से सर्वोपरि हो जाएगा। अगर मुहल्ले अनवरत साफ सुथरा रखने में कामयाब हो गए तो समझों असमय होने वाली 70 प्रतिशत बीमारियों से आप खुद छुटकारा पा जाएंगे। आज बस इतना ही, शेष बातें अगले अंक में होंगी।

Wednesday 1 April 2015

आओ चलें सुन्दर भारत बनाएं

भारत एक कृषि प्रधान, धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक विविधताओं से भरा देश है। इस देश में अलग-अलग भाषा, धर्म, सम्प्रदाय और संस्कृतियों के मानने वाले लोग रहते हैं। इन दिनों देखने को मिल रहा है कि देश में भाषाई हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा, इलाकाई हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं। प्राकृतिक आपदा की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। आबादी बढ़ने के साथ रोजगार के अवसर घटे हैं। लोग संक्रामक बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। नौजवान शैक्षणिक डिग्रियां लेकर यदा-कदा भ्रमण कर रहे हैं, उन्हें रोजगार नहीं मिल पा रहा है। व्यवसायी भी परेशान हैं। नदियां प्रदूषित हो रही हैं। भूजल स्तर लगातार गिर रहा है। पर्यावरणीय प्रदूषण बढ़ रहा है। यह तो मौलिक समस्याएं हैं, जिन पर आसानी से नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। देश की दूसरी सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार के मूल में नौकरशाही है या फिर राजनीतिज्ञ कुछ स्पष्ट नहीं। दोनों अपने-अपने तरीके से एक दूसरे को दोषी बताते रहते हैं। अगर वाकई में हम इस मन:स्थिति में है कि देश के लिए कुछ करना चाहते हैं तो पहल खुद के स्तर पर करनी होगी। उदाहरण के तौर पर खुद से सवाल करें-
1-क्या हम अपना परिवेश स्वच्छ रखते हैं।
2-क्या हम अपनी नैतिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हैं।
3-क्या हम अहिंसा के रास्ते पर चलकर एक दूसरे का सम्मान देते हैं।
4-क्या हम राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं।
5-क्या हमने अपने जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित किया है।
अगर इन सवालों का जवाब हां में है और इनका हम पूरा अनुपालन कर रहे हैं तो निश्चित रुप से हम सब देश को बदलने का अभियान चलाने के लायक हैं। आज पहले चरण में बस इतना ही। अगले चरण में कल फिर हम अपने विचार आप से शेयर करेंगे।
                                              धन्यवाद
                                                          रमेश पाण्डेय
                                                           प्रतापगढ़
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